धर्म एवं दर्शन >> मौन की गूँज मौन की गूँजश्री रविशंकर जी
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पाँच वर्षों के ज्ञान-पत्रों का उद्धृत अंश....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
छोटी अवस्था से श्री श्री रविशंकरजी के भावी जीवन की प्रत्यक्ष थी। तीन
वर्ष की आयु से ही उनको गीता के श्लोक कंटस्थ थे। घण्टों ध्यान में बैठना
और पूजा करना उनके बचपन के प्रिय खेल थे। सत्तरह वर्ष की आयु में उन्होंने
विज्ञान और वेदों का अध्ययन समाप्त करके एकान्त साधना और संत-संगति में
कुछ वर्ष बिताए।
सन् 1982 से श्री श्री की देश-विदेश में यात्राएँ आरम्भ हुईं। गुरुदेव द्वारा निर्धारित शिक्षा-क्रम से लाखों लोगों को चिन्ता व तनाव से मुक्ति का मार्गदर्शन मिला है। आज विश्व-भर में उनकी सुदर्शन क्रिया ‘‘आर्ट ऑफ लिविंग’’ के शिविरों में हर वर्ग, राष्ट्र और धर्म के लोगों को सिखायी जाती है।
परमपूज्य श्री श्री रविशंकरजी अंतर्राष्ट्रीय आर्ट ऑफ लिविंग फाउन्डेशन के संस्थापक हैं, जो आज करीब 140 देशों में फैली है—इसका मुख्य कार्यालय बंगलौर में है। जेनेवा-स्थित इन्टरनेशनल एसोसिएशन ऑफ ह्युमन वैल्युज़ के भी वे संस्थापक हैं। उनके प्रेम, ज्ञान और प्रतिबद्धता से प्रेरित कृतज्ञ भक्त-जन देश-विदेश में जन-कल्याण हेतु असंख्य सेवा कार्यक्रम में जुटे हैं जिनका मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक उन्नति, मानवीय मूल्यों का पुनरोत्थान व दिव्य समाज का नव-निर्माण।
सन् 1982 से श्री श्री की देश-विदेश में यात्राएँ आरम्भ हुईं। गुरुदेव द्वारा निर्धारित शिक्षा-क्रम से लाखों लोगों को चिन्ता व तनाव से मुक्ति का मार्गदर्शन मिला है। आज विश्व-भर में उनकी सुदर्शन क्रिया ‘‘आर्ट ऑफ लिविंग’’ के शिविरों में हर वर्ग, राष्ट्र और धर्म के लोगों को सिखायी जाती है।
परमपूज्य श्री श्री रविशंकरजी अंतर्राष्ट्रीय आर्ट ऑफ लिविंग फाउन्डेशन के संस्थापक हैं, जो आज करीब 140 देशों में फैली है—इसका मुख्य कार्यालय बंगलौर में है। जेनेवा-स्थित इन्टरनेशनल एसोसिएशन ऑफ ह्युमन वैल्युज़ के भी वे संस्थापक हैं। उनके प्रेम, ज्ञान और प्रतिबद्धता से प्रेरित कृतज्ञ भक्त-जन देश-विदेश में जन-कल्याण हेतु असंख्य सेवा कार्यक्रम में जुटे हैं जिनका मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक उन्नति, मानवीय मूल्यों का पुनरोत्थान व दिव्य समाज का नव-निर्माण।
हर साँस में प्रार्थना
मौन है
अनन्त में प्रेम
मौन है
शब्द-हीन ज्ञान
मौन है
लक्ष्य-हीन करुणा
मौन है
कर्ता-हीन कर्म
मौन है
सृष्टि के संग मुस्कुराना
मौन है
मौन है
अनन्त में प्रेम
मौन है
शब्द-हीन ज्ञान
मौन है
लक्ष्य-हीन करुणा
मौन है
कर्ता-हीन कर्म
मौन है
सृष्टि के संग मुस्कुराना
मौन है
भूमिका
जून 1995 से परमपूज्य श्री श्री रविशंकरजी के साप्ताहिक ज्ञान-पत्रों का
सिलसिला आरम्भ हुआ, जिनका विषय प्रायः तत्कालीन घटनाओं के प्रसंग में
होता। ये ज्ञान-पत्र 6 महादेशों में फैले 140 से भी अधिक देशों के सत्संग
मण्डलियों को फैक्स तथा ई-मेल के द्वारा भेजे जाते हैं। यह पुस्तक श्री
श्री से प्राप्त पहले पाँच वर्षों के ज्ञान-पत्रों का उद्धृत अंश है।
किसी भी ज्ञान-पत्र को पढ़ रहे हों, यह ज्ञान हमेशा नया लगता है। संसार भर में अधिकांश व्यक्ति महसूस करते हैं कि ज्ञान-पत्र का विषय वही था जिस पर वे सुनना चाहते थे, या जो उन पर घट रही थी-गुरुजी ने मानो इसे मेरे लिए ही भेजा है। न काल, न दूरी, न अलगाव—ज्ञान के समावेश में कुछ नहीं रहता। सत्य एक है, ईश्वर एक है, एक ही विराट मन है जिसमें हम सब जुड़े हैं।
यह कोई किताबी सिद्धान्त या दार्शनिक ज्ञान की व्याख्या नहीं; ये ज्ञान पत्र सच्चे साधक के लिए गुरु के अंतरंग अनमोल वचन हैं।
इस पुस्तक में ज्ञान-पत्रों का संकलन विषयानुसार है, साप्ताहिक क्रमानुसार नहीं। पहले अध्याय में उन ठोस विषयों को ही लिया गया है जिनमें हम सुधार लाना चाहते हैं, जैसे क्रोध, शंका, भय; साथ ही प्रेम और वैराग्य के विषय भी, जिन्हें हम अपने जीवन में ढालना चाहते हैं। दूसरे अध्याय में उन विषयों को लिया गया है जो हमें यह सिखाते हैं कि आध्यात्मिक पथ पर चलने का क्या अभिप्राय है और सेवा, साधना व समर्पण का क्या महत्त्व है। तीसरा अध्याय सूक्ष्म विषयों पर है—ईश्वर को जानना, उनसे हमारा सम्बन्ध, अपनी अन्तरात्मा में वापस आना—जिनकी वास्तव में हमें तलाश है पर जिनकी समझ नहीं।
किसी भी ज्ञान-पत्र को पढ़ रहे हों, यह ज्ञान हमेशा नया लगता है। संसार भर में अधिकांश व्यक्ति महसूस करते हैं कि ज्ञान-पत्र का विषय वही था जिस पर वे सुनना चाहते थे, या जो उन पर घट रही थी-गुरुजी ने मानो इसे मेरे लिए ही भेजा है। न काल, न दूरी, न अलगाव—ज्ञान के समावेश में कुछ नहीं रहता। सत्य एक है, ईश्वर एक है, एक ही विराट मन है जिसमें हम सब जुड़े हैं।
यह कोई किताबी सिद्धान्त या दार्शनिक ज्ञान की व्याख्या नहीं; ये ज्ञान पत्र सच्चे साधक के लिए गुरु के अंतरंग अनमोल वचन हैं।
इस पुस्तक में ज्ञान-पत्रों का संकलन विषयानुसार है, साप्ताहिक क्रमानुसार नहीं। पहले अध्याय में उन ठोस विषयों को ही लिया गया है जिनमें हम सुधार लाना चाहते हैं, जैसे क्रोध, शंका, भय; साथ ही प्रेम और वैराग्य के विषय भी, जिन्हें हम अपने जीवन में ढालना चाहते हैं। दूसरे अध्याय में उन विषयों को लिया गया है जो हमें यह सिखाते हैं कि आध्यात्मिक पथ पर चलने का क्या अभिप्राय है और सेवा, साधना व समर्पण का क्या महत्त्व है। तीसरा अध्याय सूक्ष्म विषयों पर है—ईश्वर को जानना, उनसे हमारा सम्बन्ध, अपनी अन्तरात्मा में वापस आना—जिनकी वास्तव में हमें तलाश है पर जिनकी समझ नहीं।
पहला अध्याय
जिस ‘तुम’ को तुम बदलना चाहते हो
अकेले होने पर भीड़ को महसूस करना अज्ञानता है।
भीड़ में भी एकता महसूस करना बुद्धिमता का लक्षण है।
भीड़ में एकान्त का अनुभव करना ज्ञान है।
जीवन-ऊर्जा का ज्ञान आत्म-विश्वास लाता है और मृत्यु का ज्ञान तुम्हें निडर और केन्द्रित बनाता है।
कुछ व्यक्ति केवल भी़ड़ में ही उत्सव मना सकते हैं; कुछ सिर्फ एकान्त में, मौन में, खुशी मना सकते हैं। मैं तुमसे कहता हूँ, दोनों करो ! एकान्त में उत्सव मनाओ और लोगों के साथ भी।
जीवन एक उत्सव है।
जन्म एक उत्सव है, मृत्यु भी उत्सव है।
मौन की गूँज हो या शोरगुल—हर पल उत्सव है।
भीड़ में भी एकता महसूस करना बुद्धिमता का लक्षण है।
भीड़ में एकान्त का अनुभव करना ज्ञान है।
जीवन-ऊर्जा का ज्ञान आत्म-विश्वास लाता है और मृत्यु का ज्ञान तुम्हें निडर और केन्द्रित बनाता है।
कुछ व्यक्ति केवल भी़ड़ में ही उत्सव मना सकते हैं; कुछ सिर्फ एकान्त में, मौन में, खुशी मना सकते हैं। मैं तुमसे कहता हूँ, दोनों करो ! एकान्त में उत्सव मनाओ और लोगों के साथ भी।
जीवन एक उत्सव है।
जन्म एक उत्सव है, मृत्यु भी उत्सव है।
मौन की गूँज हो या शोरगुल—हर पल उत्सव है।
13 मार्च, 1997
नई दिल्ली, भारत
नई दिल्ली, भारत
इन्द्रियाँ
इन्द्रियाँ अग्नि की तरह हैं। तुम्हारा जीवन अग्नि के समान है। इन्द्रियों
की अग्नि में जो कुछ भी डालते हो, जल जाता है। यदि तुम गाड़ी का टायर
जलाते हो, तो दुर्गन्ध निकलती है और वातावरण दूषित होता है। परन्तु यदि
तुम चन्दन की लकड़ी जलाते हो, तो चारों ओर सुगन्ध फैलती है। कोई अग्नि
प्रदूषण फैलाती है और कोई अग्नि शोधन करती है।
‘बोन फायर’ के चारों ओर बैठकर उत्सव मनाते हैं और चिता की अग्नि के चारों ओर शोक मनाते हैं। जो अग्नि शीतकाल में जीवन को सहारा देती है, वही अग्नि विनाश भी करती है।
तुम भी अग्नि की तरह हो। क्या तुम वह अग्नि हो जो वातावरण को धुएँ और गन्दगी से प्रदूषित करती है या कपूर की वह लौ जो प्रकाश और खुशबू फैलाती है ? सन्त कपूर की वह लौ हैं जो रोशनी फैलाते हैं, प्रेम की ऊष्णता फैलाते हैं। वे सभी जीवों के मित्र हैं।
उच्चतम श्रेणी की अग्नि प्रकाश और ऊष्णता फैलाती है। मध्यम श्रेणी की अग्नि थोड़ा प्रकाश तो फैलाती है, मगर साथ ही थोड़ा धुआँ भी। निम्न श्रेणी की अग्नि सिर्फ धुआँ और अन्धकार फैलाती है। विभिन्न प्रकृति की अग्निओं को पहचानना सीखो।
यदि तुम्हारी इन्द्रियाँ भलाई में लगी हैं, तो तुम प्रकाश और सुगन्ध फैलाओगे। यदि बुराई में लगी हैं, तुम धुआँ और अन्धकार फैलाओगे। ‘संयम’ तुम्हारे अन्दर की अग्नि की प्रकृति को बदलता है।
‘बोन फायर’ के चारों ओर बैठकर उत्सव मनाते हैं और चिता की अग्नि के चारों ओर शोक मनाते हैं। जो अग्नि शीतकाल में जीवन को सहारा देती है, वही अग्नि विनाश भी करती है।
तुम भी अग्नि की तरह हो। क्या तुम वह अग्नि हो जो वातावरण को धुएँ और गन्दगी से प्रदूषित करती है या कपूर की वह लौ जो प्रकाश और खुशबू फैलाती है ? सन्त कपूर की वह लौ हैं जो रोशनी फैलाते हैं, प्रेम की ऊष्णता फैलाते हैं। वे सभी जीवों के मित्र हैं।
उच्चतम श्रेणी की अग्नि प्रकाश और ऊष्णता फैलाती है। मध्यम श्रेणी की अग्नि थोड़ा प्रकाश तो फैलाती है, मगर साथ ही थोड़ा धुआँ भी। निम्न श्रेणी की अग्नि सिर्फ धुआँ और अन्धकार फैलाती है। विभिन्न प्रकृति की अग्निओं को पहचानना सीखो।
यदि तुम्हारी इन्द्रियाँ भलाई में लगी हैं, तो तुम प्रकाश और सुगन्ध फैलाओगे। यदि बुराई में लगी हैं, तुम धुआँ और अन्धकार फैलाओगे। ‘संयम’ तुम्हारे अन्दर की अग्नि की प्रकृति को बदलता है।
24 जुलाई, 1995
मॉन्ट्रियल आश्रम, कैनाडा
मॉन्ट्रियल आश्रम, कैनाडा
आदतें
वासनाओं, धारणाओं, से कैसे मुक्त हों ? यह प्रश्न उन सभी के लिए है जो
बुरी आदतों से छुटकारा पाना चाहते हैं। तुम आदतों को छोड़ना चाहते हो
क्योंकि वे तुम्हें कष्ट देती हैं, तुम्हें बाँधती हैं। वासनाओं का स्वभाव
है तुम्हें विचलित करना, तुम्हें बाँधना—और जीवन का स्वभाव है
मुक्त
होने की चाह। जीवन मुक्त रहना चाहता है, पर जब यह नहीं मालूम कि कैसे
मुक्त हों, तब आत्मा जन्म-जन्मांतरों तक मुक्ति की चाह में भटकती रहती है।
आदतों से छुटकारा पाने का उपाय है संकल्प, या संयम। सभी में कुछ होता ही है। जब जीवन-शक्ति में दिशा होती है, तब संयम द्वारा आदतों के ऊपर उठ सकते हो।
जब मन बुरी आदतों की व्यर्थ चिन्ताओं में उलझा रहता है, तब दो बातें होती हैं, पहली, तुम्हारी पुरानी आदतें वापस आ जाती हैं और तुम उनसे निरुत्साहित हो जाते हो। तुम अपने को दोषी ठहराते हो और सोचते हो कि तुम्हारा कोई विकास नहीं हुआ।
दूसरी ओर तुम बुरी आदतों को संयम अपनाने का एक नया अवसर मानकर प्रसन्न होते हो। संयम के बिना जीवन सुखी और रोग-मुक्त नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम्हें पता है कि अत्यधिक आइसक्रीम खाना उचित नहीं, वरन बीमार पड़ जाओगे। संयम ऐसी अति को रोकता है।
समय और स्थान को ध्यान में रखकर संकल्प करो। संकल्प समयबद्ध होना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी को सिगरेट पीने की आदत है और वह कहता है, ‘‘मैं सिगरेट पीना छोड़ दूँगा।’’ वह सफल नहीं होता। ऐसे लोग निर्धारित समय, जैसे तीन महीने या 90 दिनों के लिए संकल्प ले सकते हैं। अगर किसी को गाली देने की आदत है, वह दस दिनों तक बुरे शब्दों का प्रयोग करने का संकल्प करे। जीवन भर के लिए संकल्प मत करो तुम उसे निभा नहीं पाओगे। यदि कोई संकल्प बीच में टूट जाए, चिन्ता न करो। फिर से शुरू करो। धीरे-धीरे समय की सीमा बढ़ाते जाओ, जब तक वह तुम्हारा स्वभाव न बन जाए।
जो भी आदतें तुम्हें परेशान करती हैं, कष्ट देती हैं, उन्हें संकल्प के द्वारा संयम से बाँध लो।
आदतों से छुटकारा पाने का उपाय है संकल्प, या संयम। सभी में कुछ होता ही है। जब जीवन-शक्ति में दिशा होती है, तब संयम द्वारा आदतों के ऊपर उठ सकते हो।
जब मन बुरी आदतों की व्यर्थ चिन्ताओं में उलझा रहता है, तब दो बातें होती हैं, पहली, तुम्हारी पुरानी आदतें वापस आ जाती हैं और तुम उनसे निरुत्साहित हो जाते हो। तुम अपने को दोषी ठहराते हो और सोचते हो कि तुम्हारा कोई विकास नहीं हुआ।
दूसरी ओर तुम बुरी आदतों को संयम अपनाने का एक नया अवसर मानकर प्रसन्न होते हो। संयम के बिना जीवन सुखी और रोग-मुक्त नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम्हें पता है कि अत्यधिक आइसक्रीम खाना उचित नहीं, वरन बीमार पड़ जाओगे। संयम ऐसी अति को रोकता है।
समय और स्थान को ध्यान में रखकर संकल्प करो। संकल्प समयबद्ध होना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी को सिगरेट पीने की आदत है और वह कहता है, ‘‘मैं सिगरेट पीना छोड़ दूँगा।’’ वह सफल नहीं होता। ऐसे लोग निर्धारित समय, जैसे तीन महीने या 90 दिनों के लिए संकल्प ले सकते हैं। अगर किसी को गाली देने की आदत है, वह दस दिनों तक बुरे शब्दों का प्रयोग करने का संकल्प करे। जीवन भर के लिए संकल्प मत करो तुम उसे निभा नहीं पाओगे। यदि कोई संकल्प बीच में टूट जाए, चिन्ता न करो। फिर से शुरू करो। धीरे-धीरे समय की सीमा बढ़ाते जाओ, जब तक वह तुम्हारा स्वभाव न बन जाए।
जो भी आदतें तुम्हें परेशान करती हैं, कष्ट देती हैं, उन्हें संकल्प के द्वारा संयम से बाँध लो।
30 जुलाई, 1995
ब्रुकफील्ड, कनेक्टिक्ट, यू. एस. ए.
ब्रुकफील्ड, कनेक्टिक्ट, यू. एस. ए.
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लोगों की राय
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